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अजमेर Dargah एक बार फिर से सुर्खियों में आई, एक किताब ने खोला राज…

अजमेर Dargah एक बार फिर से सुर्खियों में आई, एक किताब ने खोला राज...

ब्यूरो रिपोर्टः अजमेर दरगाह (Dargah) का इतिहास अत्यधिक जटिल और गहरा है, और यह हमेशा से सांप्रदायिक और धार्मिक दृष्टिकोणों के बीच एक मिलाजुला स्थल रहा है। इस किताब ने एक नए दृष्टिकोण से इस स्थल के धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व को प्रस्तुत किया है, लेकिन इस पर और अधिक शोध और चर्चा की आवश्यकता है ताकि हम इसके वास्तविक इतिहास को समझ सकें। दरअसल जो प्रसिद्ध सूफी संत हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के नाम से जाना जाता है, इतिहास और इसके भीतर मौजूद रहस्यों को लेकर काफी चर्चाएँ होती रही हैं।

 

अजमेर Dargah एक बार फिर से सुर्खियों में आई

 

अजमेर Dargah एक बार फिर से सुर्खियों में आई, एक किताब ने खोला राज...

 

एक किताब ने इस बात का खुलासा किया है कि दरगाह (Dargah) में कभी मंदिर हुआ करता था, और यहां पूजा होती थी। यह किताब इस ऐतिहासिक तथ्य को उजागर करने का दावा करती है, जिससे दारगाह (Dargah) की धार्मिक पहचान को लेकर नई बहस शुरू हो गई है। इस किताब का नाम “अजन्ता की तहकीकात” है, जिसमें एक महत्वपूर्ण दावा किया गया है कि अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह बनने से पहले, यह स्थल एक हिन्दू मंदिर था। इस किताब में यह कहा गया है कि जब ख्वाजा साहब ने यहां आकर आध्यात्मिक शिक्षा और प्रेम का प्रचार किया, तो उन्होंने इस स्थान को एक धार्मिक केन्द्र के रूप में विकसित किया।

 

किताब के मुताबिक, अजमेर में जब मंदिर था, तब यहां हिन्दू धर्म के अनुयायी पूजा अर्चना करते थे। यह जगह पहले “अजन्ता” के नाम से प्रसिद्ध थी, जो एक हिन्दू धार्मिक स्थल था। बाद में, ख्वाजा साहब ने इस स्थान पर आकर सूफी मत का प्रचार किया और इसे एक दारगाह (Dargah) के रूप में तब्दील कर दिया। इतिहासकारों का मानना है कि यह परिवर्तन मुस्लिम सूफियों के धर्म प्रचार के साथ हुआ, जब उन्होंने यहां हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के बीच प्रेम और भाईचारे का संदेश दिया।

 

अजमेर Dargah एक बार फिर से सुर्खियों में आई, एक किताब ने खोला राज...

 

इसके बाद से यह स्थल एक साझा धार्मिक स्थल के रूप में विकसित हुआ, जिसमें दोनों समुदायों का योगदान रहा। हालांकि, इस किताब के दावे को कुछ इतिहासकार और धार्मिक विद्वान सही नहीं मानते। वे यह मानते हैं कि ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह (Dargah) का निर्माण मुस्लिम आस्था के आधार पर हुआ था और यह स्थल हिन्दू मंदिर नहीं था। उनका कहना है कि दरगाह का स्थल पूरी तरह से एक मुस्लिम धार्मिक स्थल के रूप में ही विकसित हुआ है, और इसमें कोई हिन्दू मंदिर होने का प्रमाण नहीं है।

 

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किताब के इस दावे के बाद, अजमेर दरगाह और इसके इतिहास को लेकर नई बहसें शुरू हो गई हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह इतिहास को फिर से समझने का एक तरीका हो सकता है, जबकि कुछ इसे सिर्फ अफवाह और किवदंती मानते हैं।

 

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