ब्यूरो रिपोर्टः उत्तर प्रदेश में चल रहे उपचुनाव में भी बसपा (BSP) वोटों के लिए तरसती रह गयी। उपचुनाव में वह अपनी चार सीटों पर जमानत भी न बचा पाई। लगातार तीसरे चुनाव में भी बसपा (BSP) का शर्मनाक प्रदर्शन रहा। उत्तर प्रदेश में इस बार फिर लगातार तीसरे चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को वोटों के लिए तरसना पड़ गया। दरअसल आपको बता दे कि उपचुनाव के नतीजों से साफ है कि वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार बसपा का करीब 60 फीसद से अधिक वोट बैंक दूसरे दलों में शिफ्ट हो गया।
उपचुनाव में BSP का प्रदर्शन बना खतरा
दलित वोट बैंक ने बसपा को नकार दिया तो पार्टी मुस्लिम वोटरों का भरोसा भी नहीं जीत सकी। बसपा (BSP) का उपचुनाव लड़ने का दूसरा कदम भी उसे नई दिशा नहीं दिखा सका। इससे पहले लोकसभा चुनाव के दौरान 5 सीटों पर हुए उपचुनाव में भी बसपा को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। फिलहाल बसपा (BSP) का प्रदर्शन उसके अस्तित्व पर किसी बड़े खतरे का संकेत दे रहा है। चुनावी नतीजों पर गौर करें तो करहल, कुंदरकी, मीरापुर और सीसामऊ में बसपा धड़ाम हो गई। चारों सीटों पर बसपा का वोट पांच अंकों की सीमा तक भी नहीं पहुंच सका, जो प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने की वजह बन गया।
मीरापुर और कुंदरकी में तो वोटरों ने बसपा से ज्यादा आजाद समाज पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तिहादुल मुस्लिमीन को तरजीह दी है। बसपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन कटेहरी सीट पर रहा, जहां पार्टी प्रत्याशी अमित वर्मा ने 41,647 वोट हासिल किए। वहीं मझवां के प्रत्याशी दीपक तिवारी उर्फ दीपू तिवारी ने 34,927 और फूलपुर के प्रत्याशी जितेंद्र कुमार सिंह को 20,342 वोट मिले। हालांकि तीनों सीटों पर 2022 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले कम वोट मिले हैं। गाजियाबाद में टिकट बदलने का खेल बसपा को भारी पड़ गया और उसके प्रत्याशी परमानंद गर्ग 10,736 वोट ही हासिल कर पाए।
यह भी पढ़ेंः Uttar Pradesh कैबिनेट बैठक में कोटेदारो को मिली बड़ी राहत, KDA में शामिल हुए ये 80 गांव
बसपा के इस खराब प्रदर्शन की वजह पार्टी के बड़े नेता हैं, जिन्होंने उपचुनाव में प्रचार करने की जहमत तक नहीं की। पार्टी नेता महाराष्ट्र और झारखंड में खुद को मजबूत करने के फेर में यूपी में अपनी जमीन को खो बैठे। उपचुनाव में बसपा प्रत्याशियों ने अपने दम पर प्रचार किया, पर वे अपने प्रचार को जीत में तब्दील नहीं कर पाई। बसपा सुप्रीमो की प्रत्याशियों से मुलाकात तो हुई, लेकिन उनके नाम की घोषणा पार्टी ने अंतिम समय पर की, जिससे वोटरों में ऊहापोह रहा। सोशल इंजीनियरिंग के बल पर चुनाव जीतने की उसकी कसरत किसी काम नहीं आई। टिकट वितरण में अंजान चेहरों पर दांव लगाने की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ गई।